Friday, December 31, 2010

बिरादरी की पूँच --- बुन्देली कहानी

बुन्देली कहानी ---- बिरादरी की पूँच
डॉ0 लखन लाल पाल
-------------------------------------------

गाँव में पंचातें ऊसई खतम हो गई जैसे काबर माटी को कठिया गोंहूँ। गोंहूँ की किसमन ने कठिया खें अपनेई घर में पराओ बना डारो। रो रओ बिचारौ खेतन के कोने में। का करे तेजी से बदलो जमानौ, कठिया गोंहूँ जमाने के हिसाब सें न बदल सको। ई धरती में तो ओई ठहर पाउत जेमें जितती सक्ति होत। बिना सक्ति बालौ हिरा जात, कुदरत को जेइ नियम है। नये कानून ने जैसें जमीदारी प्रथा खें खतम कर दओ, ओइ के संग में पंचाटें बह गईं। आदमी सूधौ पुलिस अदालत करत। वहाँ मूँ देखौ ब्यौहार नहियाँ। केस फँस गओ तौ सजई को डौल है। फिर नई-जई बूढ़न की मानत कहाँ है। सबखें हुड्डन लगे। कछू नेतागीरी में रम गए। कुल मिला खें पंचाट घर अपने बिगत जीवन की सुरत में टसुआ बहाउत।
गाँव कौ कछू समाज पुरखन की ई पिरथा खें अभऊँ चला रओ। रघुआ ने ई पंचाट में कछू जान डार दई। गाँव भर में एकई सोर है। रघुआ लुगाई कर ल्याओ। कहाँ की आय, कोऊ नईं जानत। स्यात पन्दरा हजार में खरीदी। पाँच हजार रुपइया की छिरियाँ बेंची ती और दस हजार रुपइया पाँच रुपइया सैंकड़ा ब्याज पै उठा खें लै गओ तो और बहू खरीद ल्याओ। बिरादरी बहू की जाति की टोह में है। दुल्हनियाँ कौन जाति की है। कोऊ कहात धोबिन है, कोऊ कहात भंगिन है। रघुआ के सपोटर कहात बभनिया है, रघुआ कहात जाति बिरादरी की है। चहाँ जौन जाति की होबे, बहू साजी है। इकदम ऊँची-पूरी, गोरी नारी। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखी झिन्नू सारी में बहुतई अच्छी लगत। गाँव भर की बइरें बहू खें दिखन आउत। पाँच रुपइया, दस रुपइया, मीना बिछिया दैखें मुँ दिखत। रघुआ की बाई बरोबर संग में लगी रहात। खरीदी बहू कोऊ कछू कान में फूँक दे तो पन्दरा हजार तौ गए, बहू अलग से चली जैहै। एक दिना रघुआ की बाई ने बिरादरी की बइरिन खें बुलउआ दिबा खें बुलवा लओ। बहू कौ नाव धराबे खें। गोरी नारी दिखखें बइरिन ने बहू कौ नाव उजयारी धर दओ। रघुआ की बाई ने ई खुसी में सबखें मुठी भर-भर खें बतासा बाँटे। रघुआ कौ बाप चतरा बिरादरी की टोह में लगो रहात, कोऊ का बतात ? हवा कौ रुख कहाँ खें है ? तिवारौ ऊसई लगाएँ खें फिर रओ। पै बिरादरी के घुटे मानुष ऐसें कैसें भेद दैं दैहैं। बिरादरी चुकरिया में गुड़ फोर रई ती। बिरादरी रोटी कैंसे लैहैं, का डाँड़ लगाहै, यौ कोऊ नईं जानत, सिवाय ऊपर वाले के। बिरादरी बालिन ने रघुआ के बाप खें साफ-साफ कह दओ तो कि जबलौ बिरादरी खें रोटी न दै दैहित तब लौ तैं कुजात रैहै, न तोरे घर में कोऊ पानी पी है, न तोखें कोऊ पानी दैहै। चतरा गुस्सा में लाल हो जात्तो पै गुस्सा खें पीबो ओखी मजबूरी हती। पाँव फँसों है, पोले दइयाँ ओखें निकारनै है। खैर कछू होय, रघुआ के दिना आनन्द से गुजरन लगे। दिन भर बिरादरी के आदमी का धौंस देत, रात में सब भूल जात्तो।
चतरा आस-पास के गाँवन में अपनी बिरादरी से मिलो। ओखे मन कौ उत्तर काऊनै न दओ, फिरऊ फुसला पोठ खें अपने कोद खें मिलावे की कोसिस करी। सबनै एकई बात कही कि एक दिना को टिया धर लेव चतरा भइया। अपनी सबई बिरादरी खें जोर लेव। पंच जो निरनै करै ऊ तो माननै परिहै। कथा, भागौत, गंगा अस्नान जो कछू बिरादरी बतावै सो ऊ कर लइए। बिरादरी खैं कच्ची-पक्की रोटी दै दइए, तोरौ उद्धार हो जैहै। जाति गंगा हम सबई खैं पवित्तर कर देत। कोऊ चतरा से कहात-‘सुनो है, बहू साजी है, कहाँ सें फटकार दई।’ बहू की बड़वाई सुन खें चतरा की छाती दो गज फूल जात्ती। तुरत हँस खें बताउत- ‘भइया तुम्हारई चरनन की किरपा है। का करेंन फाल बिगर गओ तो, बिरादरी कौ कोऊ आदमी मोरे लरका के दाँत नईं दिखत तो, बंस तौ चलानै हतो, मैंने कही भइया पइसा लगहै ता लग जाबै, बहू तौ आ जैहै।’ ‘ठीक रहो दादी, बस बिरादरी खें और संभार लै, तोरौ बारे कैसो ब्याव बन जैहै।’
आज बिरादरी की पंचाट हती। बड़े-बड़े पंच आस-पास के गाँवन सें बुलाए गए। इतनौ-कर्रौ मामलौ गाँव कौ समाज अपने मूँड़ पै कैसे लै लेतो। आस-पास के पंचन कौ जमावड़ौ दिखे सें ऐसौ लगत तो जैसे कोऊ पिरतिस्ठित आदमी ई दुनिया से बिदा हो गओ होय और ओखी तेरहईं में लोग इकट्ठे भए हो।
मानुष धरती के सभई पिरानियन सें ईसें सिरेस्ट है कि ओखे पास दिमाग है, सोचे समझे की ताकत है। बिचार कर सकत। सभई पहलुअन खें समझ खें नतीजे पै पहुँच सकत। दो चार आदमी यहाँ बैठे तौ दो चार आदमी वहाँ। बूढ़न कौ सुरौधौ अलग लगो। कोऊ बिड़ी सुरक रओ तौ कोऊ तमाखू की पीक थूक रओ। सिकरिट तौ ऐसे चौखें जात जैसे भदुआ (गन्ना) बात कौ केन्द्र रघुआ और रघुआ की लुगाई हती। जुन रडुआ लरका हते उनै रघुआ से ईरखा होन लगी। जुन की रघुआ के बाप सें तनकई तन्ना-फुसकी हती वे ई घात में हते कि डाँड़ कररौ लगै तौ उनके करेजौ कौ दाह बुझा जावैं। कोऊ पंचाट में जाबे खें तौ तइयार हतो पै रोटी लैबे खें ठनगन करत। बिरादरी की मेहरियन ने खसमन खें जाती-जाती बेरा लौ खूब समझाओं। पुन्ना की बाई नै अपने आदमी सें कही- ‘भलू पुन्ना के नन्ना पाँत में नई जानै, बिरादरी खें साफ बता दइये। खसम ने कान पै नईं धरी तौ वा सन्ना खें बोली - ‘तै भलईं चलो जइये पाँत में, लडुअन कौ भूकौ होत ता, पै मैं जान बाली नहियाँ, ध्यान कर लैत।’
पुन्ना कौ नन्ना बिचारौ बेमौत मरो जा रओ तो। बिड़ी पीवे में ओखौ मन नईं लगत हतो। पंचन की ठसक सहाय कि लुगाई की। अब तौ रामभरोसे है, जो कछू होहै सो भुगती जैहै। पुन्ना कौ नन्ना पुरखन खैं कोस रओ तो कि लुगाइअन खें पंचाट सें बाहर काए राखो। लुगाई जात होतीं ता मैं कभऊँ न आतो, पुन्ना की बाई खें पठै देतो। सबरौ टंटा दूर हो जातो। ईनें सासकेरी नै मोई कुआ बहर कैसी हालत कर दई।
चार आदमी आपस में बता रए ते। एक बोलो- ‘सुनो है स्वसर रघुआ की लुगाई साजी है।’
-‘‘कक्का सिरी देबी सी लगत।’
-‘‘हैं !’’ दूसरे ने मुस्क्या खें आँखीं सिकोरी।
-‘‘सुनो है, धोबिन है।’’ पहलौ वालौ बोलो।
-‘‘ससुरा खें बिरादरी नईं मिली। बिरादरी की बइरें तू गयीं ती का ?’’
-‘‘जाति में आ गई कक्का, पंच धोबिन खें बिरादरी की न बना पाहैं का ?’’
--‘‘जाति गंगा में कूरा-करकट सब कछू मिल जात रे ! अब तौ यौ सब पंचन के हाँतन में है।’’
-‘‘अब का करो जाय कक्का, सुसरा रघुआ लुगायसौ हतो, अक्क लगी न धक्क, साजी दिखखें खरीद ल्याओ। कहात नहियाँ -‘प्यास न देखै धोबी घाट, इसक न देखै जाति कुजात।’ उन्हई में से तीसरौ बोलो।
तीसरे की बात सुन खें दो हँस परे, चौथौ न हँस पाओ। ऊ सोच में पर गओ। ऊ समुझाउत भओ बोलो -‘‘कक्का ई बारे मे सबूत नहियाँ, हम फँस जैहैं।’’ चौथे वाले की बातें सुनखें तीनों के मुँ लटक गए।
अब दूसरी कोद की जमात। खुसर-पुसर मची। इत्ते धीरे सें बोलत कि बात सूधी कान में पहुँचत, यहाँ-वहाँ बरबाद नईं होत।
-‘‘गर्रा गओ है चतरा, अच्छौ पइसा है, मुखिया डाँड़ हिसाब सें लगाइए।’’
-‘‘कित्ती पोपरटी होहै ?’’ मुखिया ने एक आँखी दबाई।
-‘‘अभै नगद पचासक हजार तौ धरे होहै। रघुआ, छिरियाँ राखें, पाँच-छै छिरियाँ अभई बेची ती। पन्दरा सोरा छिरियाँ अभै मौका पैहैं।’’
-‘‘चिन्ता न कर दादी, जैसौ तै चाहहित ऊसई होहै, कौन एक पंचाट निपटाई, हजार निपटा खें फैंक दई। कोऊ नै उँगरिया नईं उठा पाई।’’ मुखिया नै अपनी मूँछन पै हाथ फेरो।
ई जमात के आदमी मुखिया की बात के कायल हो गए। मुखिया नै अपनौ भभका बना लओ। मुखिया नै अभई अच्छे पंच कौ सरटीफिकट दै दओ तो। ऊनै गरब से गरदन हिलाई।
-‘‘दाऊ सेंकें मैकें न सट्टे करे।’’ ओई जमात में एक ठइया बोलो, ऊ कछू साँची बात जानत हतो। ऊसें न रहो गओ, ऊनै कह दओ- ‘‘बहू खरीदें खें दस हजार करजा उठाखें लै गओ तो। कहाँ सें आए पचास हजार कि साठ हजार।’’
दाऊ की बात कटतई दाऊ तिलमिलानों, पै घाघ किसम कौ आदमी बात संभारत भओ बोलो-‘‘अरे तै सिटया गओ का, दस हजार तौ चतरा नै ईसें करजा लए कि सब कोऊ जान जाय फिर भइया बिरादरी डॉड़ मजे को लगावै।’’
-‘‘चतरा की या बदमासी हमाई समझ तरें नई आई। ऐसई हो सकत।’’ ऊ अपनी बात खें वापस लेत भओ बोलो।
अब बिरादरी के लानै पंच बुलउआ भओ। पंचन की बात कौन टार सकत। घर सें तौ पहलईं निकर आये ते। जहाँ-तहाँ बैठ खें रैसल करत हते, अब उठ-उठ खें सब नीम के पेड़ें तरें इकट्ठे हो गए। मैंदान बड़ौ हतो, चारऊ कोद कच्ची माटी की भितिया उठी हती। चतरा नै गाँव भर की जेजमें माँगखें इकट्ठी कर लईं ती, ओई बिछा दई।
ओई मैदान में एक कोद चौतरा बनो हतो। पाँच पंच ओई में जा बैठे। ये पाँचऊ पंच अलग-अलग गाँवन के हते। बिरादरी में खूब नाम कमाओ तो, ओई कौ फायदा उन्हें मिलो कि वे आज पंच बन खें बैठ गये। बोले में चतुर। मूँड़ पै बड़े-बड़े साफा बाँधें, हाथ में तेल लगी हल्की सी लठिया। धोती कुरता के ऊपर सदरी पहरें लगत कि ये पंच है। मुँ पै गंभीरता, हर कोऊ उनके सामूँ बात करै सें दंदकत। पाँचऊ आराम सें चौतरा पै बिछी दरी पै बैठ गए। या दरी पंचन खें इस्पेसल हती। बचे आदमी खाले की जेजमन पै बैठ गए। वे पंच जुन-जुन के कौन्हऊ रिस्ता सें कछू लगत हते, उनके भाव बढ़ गये। एक पंच कुन्टा कौ मामा लगत तो, ओखे पांव अब धरती पै नई रुपत ते। अक्कल सें कछू कच्चौ हतो सो गाँव वाले धत तोरे की कह खें भगा देत ते। आज उन्हईं खें दिखखें ऐसे मुस्क्यात तो जैसें ....................।
पंचन नै आपस में हँरा से कछू बातें करीं। आदमिन के कान ठाड़े भए, पै वा आवाज उनके कान न सुन पाए। एक पंच गम्भीर बानी में बोलो-‘‘चतरा पंच काहे खें बुलाए ?’’ चतरा हाँत जोर खें ठाड़ो हो गओ और बुकरिया सौ मिमयानो- ‘‘मुखिया साब, तुम तौ सब जानत हौ।’’
-‘‘जानत तौ सब कछू है, तैं अपने मुँ सें तौ बता। चार आदमी सुन लैहै।’’ दूसरौ पंच हँसत भओ बोलो।
-‘‘पंचौ, मो लरका रघुआ बहू कर ल्याओ। सामूँ आँखिन कौ लरका है, गल्ती तौ ऊनै करई लई। मैं चाहत हौं कि बिरादरी मोखें सनात कर देबै तौ मैं तर जाऊँ।’’
बिरादरी के सब आदमी सांत बैठे ते। अभै कोऊ नईं बोल रओ तो। पंचन नै बिरादरी कोद दिखों फिर चतरा सें कही-‘‘बिरादरी जाति गंगा कहाउत, वा तौ तोखें सनात करई दैहै, पै यौ तौ बता कि बहू की जाति का है ?’’
मुखिया की बात सुनखें चतरा बंगलें झांकन लगो। ई कौ उत्तर चतरा का बनावै। सो ऊनै चिमाई साध लई।
-‘‘सुनो है धोबिन है।’’ पुन्ना को नन्ना बीच में बोलो।
-‘‘धोबिन कैसें है, बभनियां है।’’ रमोला नै फट्ट से पुन्ना के नन्ना की बात काट दई।
-‘‘पंचौ वा न धोबिन है, न बभनियां है, वा तौ भंगिन है।’’ चतरा कौ समर्थक व्यंग सें बोलो।-‘जाति-बिरादरी होत काहे खें हैं, बिरादरी ऊखें जाति में समगम कर पाहै कि नईं।’’ अब सभई बोलन लगे। इतनौ हल्ला होन लगो कि अब कोऊ काऊ कौ सढ़ौ नईं पर रओ तो ! पंचन नै बात संभारी, वे ठाड़े होखें बोले- ‘‘तुम सब जने चुप्पा हो जाव। ऐसें पंचाट नईं होत।’’ सभई चुप हो गये, पंचन की बात को टार सकत। चतरा हाँत जोड़ें अभऊँ ठाड़ो तो। पंच बोले-‘‘रघुआ खें बुलाऊ।’’ रघुआ वहीं बैटो हतो सो ठाड़ों हो गओ। एक पंच ने पूछो- ‘‘काए भइया, बहू कौन जाति की है ?’’
-‘‘साब बिरादरी की है।’’ रघुआ ने हात जोड़ खें जबाब दै दओ।
-‘‘तोखें कैसें पता कि वा बिरादरी की है ?’’ दूसरौ पंच मूँछन पै हात फेरत भओ बोलो।
-‘‘साब, ओईनै बताओ।’’ रघुआ कछू सरमियानो।
-‘‘कौन ओई नै ?’’ पंच कम नईं ते, सो बात उकेरी। रघुआ न बोलो सो बीच में एक बूढ़ौ बोल परो-‘‘बहू नै बताओ होहै।’’ रघुआ ने मुण्डी हिला दई।
अब बलू सें न रहो गओ। अठारा साल कौ लरका। दाढ़ी मूँछें जमत आउत ती। ओखौ शरीर साजौ हतों, जोसऊ खूब हतो सो खौखरया खें बोलो- ‘‘मोखौं यौ समझ में नई आउत कि पंच जाति पांत काए हुराएँ फिरत है। जाति-पाँति में उरझे रैहौ ता तुम्हारौ कभऊँ विकास नई हो पानै। दुनिया कहाँ पहुँच गई। दूसरी जातियन के आदमी हमें तुम्हें बेसऊर कैहैं। ईंसें जाति-पाँति छोड़ो, भौजाई साजी है। बिरादरी की पूँच लम्बी न बढ़ाऊ।’’
-‘‘बैठ जा रे ! सवाद-उवाद है नहियाँ। पंचाट है, मेहेरिया सें हँसी मजाक नुहै, जब चाहौ कर लेव। तौल खें बात करी जात।’’ उन्हई में सें एक बुड्ढ़ा बिगर परो।
बलु की बात नै आदमिन के करेजे चीर दए। स्यात छाती में तीर घुसे से इतनी पीरा नई होत होहै, जितनी बलु की बातन सें उन्हें पीरा भई। आदमी बिलबिला उठे। कइयक मूड़ पीटन लगे। दूसरे चिल्ला खें बोले-‘‘ अब आदमिन की तू-तू मैं मैं सुरू हो गई। दो पाल्टी बन गई। लोगन खें अब पता चल गओ कि कौन पाल्टी मे को को है। पंचन नै बात संभारी और उन्हें सांत कराउत भए बोले- ‘‘लला, समाज में हमऊँ खें रहनै है और तुम्हऊ खें। काल के दिना अपनौ कोऊ पानी न पीहै।’’
-‘‘बाभन, बनिया तुम्हारौ रोंज पानी पियन आउत का ?’’ बलु उखरई गओ।
बलु की सांची बात आदमिन खें न पची। कोऊ तरकऊ न सूझो, ईसें हँसियन ता हँसियन नईतर पिट हँसियन। कुफर बोले पै बिरादरी नै बलु पै दस सेर गुड़ कौ डाँड़ धर दओ। बलु के बाप खें बिरादरी की समझ हती ईसें ऊनै अपने लरका की भूल की माफी मांगी और रुपइया दैखें दस सेर गुड़ मंगा लओ।
बलु खें ई बात को बौहुत बुरओ लगो। ईसें बलु पाँव फैकत पंचाट से बाहर जान लगो। दाऊ ने बलु खें टेरो और समझाउत भओ बोलो- ‘‘बलु तैं काए बुराई मानत, अभई दिखो नहियाँ दो पाल्टी बनन लगी ती। पंच न रोकते ता थोरीअई देर में गड़िया चूतियां होन लगतो।’’ बलु गुस्सा में फिर खें अपने ठौर पै बैठ गओ।
गुड़ खात भए पंच बोले -‘‘खेत में मेंड़ होत, अगर मेंड़ न होबे ता खेत काहे कौ। पतई न चलै कौन खेत केखौ आय। पुरखा बेसऊर थोरे हते। हमें पुरखन की परपाटी पै तौ चलनई परहै।’’
पाँचऊ पंचन के मूँड़ एक देर फिर इकट्ठे भए। कछू देर तक उनकी आपस में मुण्डी हिली, फिर तनक देर में अलग हो गयीं। अब तीसरे पंच ने आदमिन कोद दिखों और खँखार खें बोलो- ‘अगर सबके मन सें हो जाए तौ बहू खें इतई बुला लओ जाय।’
बढ़ियल, बहुत बढ़ियल, कई आवाजें एकई साथ गूँज गई।
बहू पंचन के सामूँ आकें ठाड़ी हो गई। सबई की नजरें बहू कोद तीं। ओखी चालई से पता चलत तो कि बहू ठसकीली है। झिन्नू साड़ी में ओखौ मूँ झार-झार दिखात तो। चौथौ पंच बोलो-‘‘बहू तोरी जाति का है ?’’
-‘‘जाति बिरादरी की है।’’ बहू हँरा सें बोली। ओखी आवाज कोऊ न सुन सको। पंचाट में बैठो दाऊ जू रसिया हतो, सो ऊ बोलो- ‘‘बहू खूब तान खें बात कर। मूँ उघार लै, इतै सरम न कर। पंच परमेसर के सामूँ का सरम।’’
बहू ने एक झटका में साड़ी माथे तक सरका लई। चौकटा में गाज सी गिरी। दाँतन तरें उँगरिया दाब खें रह गओ आदमी। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखीं, गोरौ खूबसूरत मूँ पंच दिखखें रह गए। बहू मुसकराई और लजात भई बोली-‘‘का पूँछत हौ, पँूछौ, बिरादरी-बिरादरी चिल्लात हौ, का सबई लोग एकई बिरादरी के हौ? गोहूँ की तो किसमें बदल गईं, आदमी की किसमें नई बदली का, जुन मोई जाति बिरादरी पूँछत हो।’’
समाज में खुसर पुसर मच गई। पंच समेत सबई आदमिन खें साँप सौ सूँघ गओ। चोट कर्री हती। सो कछू आपस में बताने-‘‘या तौ घाट-घाट कौ पानी पिएँ है। चारऊ कोद की हवा खाई भई है। ईसें पार न पा पैहौ, जाने का बक ठाड़ी होबै, लुगाई है ईके मूँ कौ का टटा बैड़ों ?’’ दूसरौ बोलो- ‘‘बहू जैसी ठसकीली है, ऊसई ठसकदार बातें है ओखी। मुस्क्या खें कैसौ जबाब दओ।’’
खुस-पुस के बीच में दाऊ टपके -‘‘पंचौ होन दो पंचाट। खेत साजौ है फिर चहाँ बलकट धरो होय चहाँ गहाने और चहाँ मोल खरीदो होय। खेत में बीज अपनौ बओ जै है ता फसल तौ अपनई मानी जै है। बताऊ, सब जने या बात गलत है कि सही।’’
-‘‘या तोर बात बिलकुल सही है दाऊ।’’ पंचाट कौ मुखिया बोलो।
आदमियों और बइयर के बीच बिसात बिछी हती। पुरुष तौ अपने पॉसे फैंक चुके ते। अब बारी उजयारी की हती। जोर अजमाइस होन लगी। उजयारी अकेली मैदान में डट गई। ऊनै अपनौ पॉसों फैंको- ‘‘पंचौ कभऊँ-कभऊँ खेत अपनौ होत, बीज कोऊ को बुब जात, पै फसल तौ खेत बाले की कहाउत। खेत बालौ फसल चपोला दइयाँ धर लेत, ऊ नई काऊ खें बताउत। पंचौ मैं यौ पूँछबो चाहत कि बीज महतपूरन है कि खेत।’’
-‘‘यौ मार दओ, दाऊ वे डरे चित्त। उजयारी नै दाऊ की बात काट दई। अब तौ पंचनऊ खें निकड़ नइयाँ।’’ दो नए लरका हँरा-हँरा फुसफसाए।
पंचन खें पूरी तरा सें लगन लगो कि पंचन की बात हल्की हो गई। ई लुगाई नै तो सबके मूँ बन्द कर दए। बइयर आय ईसें उरझें सार नईं दिखात। हंड़िया होय ता ओखे मूँ पै पारौ धर देबै, ई लुगाई के मूँ पै का ध देन। कुल की होती ता लाज सरम होती, मोल खरीदी। ई चड़वॉक खें रघुआ न जानै कहाँ सें खरीद ल्याओ। सब पंचन खें उजयारी की बाते ततइयाँ सी लगी। अकेलौ बलु खुस हतो। ऊ अपनौ दस सेर गुड़ कौ डाँड़ भूल गओ। उजयारी कोद बलु ने एक देर दिखो। उजयारी की जीत पै बलु मुस्क्यानों। स्यात ऊ मुस्कान को अरथ हतो- ‘‘भौजी मार लओ मैदान, थोरी और डटी रओ, सबरे पीठ दिखाखें भग धरहैं।’’ उजयारिऊ भौजी ऊ मुस्कान कौ अरथ समझी। मुस्कान कौ उत्तर मुस्कान में दओ। ऊ मुस्कान को मतलब हतो- ‘‘लला चिन्ता न करौ, मैं पीठऊ दिखाए पै न इन्हें छोड़हौं। रगेद-रगेद मारिहौं, ढूड़ै गली न मिलहै।’’ उनकौ मुस्कराबो बिरादरी बालन नै दिखो। उन्नै समझो बलु उजयारी खें बढ़ा रओ है। एखी साँस पा गई, अब वा न हट है। वे खौंखरयाने बौहत पै उनकी एकऊ चाल न चली। उन्नै सोची, पंचाट बिगर जैहै। ईसें पुन्ना को नन्ना बोलो-‘‘पंचौ, फैसला होन दो, फालतू बातन में का धरो।’’
पुन्ना के नन्ना की बात सबखें जम गई। पंच फैसला सुनाबे खें तइयार हो गए। चतरा सकपकानो। बिरादरी न जानै कैसौ फैसला सुनाहै। ओखे पेट में भटा से चुरन लगे। पूरौ समाज इकदम सांत हो गओ। चतरा के दिमाग में घंटा सौ बजन लगो। अब पंचन नै मिलखें फैसला सुनाओ- ‘‘रघुआ बहू तौ करई ल्याओ है, ठीक है। पंच रघुआ की बहू नै पूरी बात सुनी। पंचन नै स्वीकार करत है।। चतरा खें बिरादरी में सामिल होने है तौ ईखौ डाँड़ भरनै परिहै। बिरादरी में दस हजार रुपइया जमा करै और कच्ची पक्की रोटी बिरादरी खै खबाबै, ऊखौ तरन तारन हो जैहै। चतरा के डाँड़ न भरे सें ऊ कुजात बनो रैहै।’’ बोल पंच परमेसर की जै। बोलौ संकर भगवान की जै। एक साथ कइयक आवाजन से वातावरन गूँज उठो। पंच चतरा सें बोले- ‘‘पंच फैसला मंजूर है।’’ चतरा कौ सरीर जड़ हो गओ। जैसे सबरे सरीर कौ खून निचोर लओ होय/-‘‘पंचन कौ फैसला मैं नई मानत।’’ उजयारी कड़क खें बोली। ई आवाज खें सबई चौंके। उन्नै तौ बर्रौटन में नई सोचो तो कि उन्हें या आवाज सुननै परिहै। या पहली आवाज आय, ईसें पहलूँ कभऊँ ऐसी आवाज सुनी नईं गई। ओऊ ऐसे ठेठ अन्दाज में। पंचन के कान ताते हो गये। आधे से जादा तिलमिला गए। पंचाट की सरासर बेइज्जती। छाती में घमूसा सौ लगो। पंचन खें ऐसी आसा नई हती कि लुगाई इत्तौ कुफर बोल जैहै। पंचन नै आदेस करो-‘‘सब भइया अपने ठौर पै बैठ जावें।’’ पंच मुखिया बोलो-‘‘बहू तोखें पंच फैसला काए मान्न नहियाँ ?’’
उजयारी अपनी बात पै तिली भर न डिगी। वा बोली- ‘‘दस हजार रुपइया मोरौ आदमी कहाँ से ल्याहै। दस हजार रुपइया जैसें तैसें सूद पै करजा लैकैं डॉड़ भर दैबी ता कच्ची पक्की रोटी में पता है बिरादरी कितने कौ खा जैहै ? तुम मोय आदमी खें और मोसे मजूरी करवाबो चाहत। मोरौ डुकरा (ससुर) येई खटका में मर जैहै। हम कुजात बने रैहै, ऊ हमें मंजूर है। तुम्हारौ फैसला हमें मंजूर नहियाँ।’’ पंच मूँ बा गये। सबरे पंच बिरादरी एक दूसरे कोद मूँ दिखत रह गए। उजयारी झटका सें घूम गई और सूधी घर खें चली गई।


डॉ. लखन लाल पाल
नया रामनगर, अजनारी रोड
कृष्णा धाम के आगे, उरई
जिला-जालौन (उ. प्र.)
----------------------------------------------
यह कहानी लेखक की प्रथम प्रकाशित कहानी है। यह उरई जालौन से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका स्पंदन के बुन्देली विशेष अंक में प्रकाशित हुई थी।

Monday, August 31, 2009

एड्स पर कविता



एड्स रोग दुखदाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ

1. पति-पत्नि कौ प्रेम अनौखौ, दूजौ साथी कबहुँ न सोचैं
यौ रोग बड़ौ हरजाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ
एड़स रोग दुखदाई .....................................

2. संक्रमित सुई से बचखैं रहनै, हमखें एड्स घरै नई ल्यानै।
घर-घर देव बताई, जागौ रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ
एड़स रोग दुखदाई .....................................

3. खून खरीदौ जाँचो परखो, ई में आलस तनक न करियो
दूर एड्स की माई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ,
एड़स रोग दुखदाई .....................................

4. देर करैं कौ मौका नइयाँ, स्याने बनौ छाँड़ लरकइयाँ
‘पाल’ कहै समझाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ

एड्स रोग दुखदाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ

Friday, August 28, 2009

तसल्ली

कहानी
तसल्ली

-------------------


भादों का महीना, महीने का आखिरी पखवारा। आसमान एकदम साफ एवं बेदाग दिख रहा था। आकाश के तारे अमावस्या के वैभव को पुनः प्राप्त करने के इरादे से टिमटिमा रहे थे। किन्तु चन्द्रमा के तीन चैथाई भाग की चमक उनके इरादों को धूमिल कर रहा था। प्रति रात्रि उसके बढ़ते यौवन से वे अपना पुरुषार्थ खोते जा रहे थे किन्तु तारे अपने कर्म से विरत नहीं हो रहे थे। उन्हें सफलता का रहस्य मालूम है। कर्मरत रहने पर उन्हें सफलताभरी अमावस्या जरूर प्राप्त होगी। चन्द्रमा पूर्णिमा की मंजिल के करीब ही था। नदी किनारे बैठी चकोरी अपने पे्रमी के सौन्दर्य पर मुग्ध हो रही थी, साथ ही सौतन कुमुदनी से ईष्र्या भाव लिये चन्द्रमा को एकटक देख रही थी। किसानों को उसका वैभव फूटी आँख भी न सुहाता था। भाद्रपद मास का श्रृगार तो रिमझिम-रिमझिम फुहार है। बादलों के साम्राज्य के आगे चन्द्रमा की क्या बिसात? लेकिन अब तो घोड़ों के मरने से गधों का राज्य आ गया है।
सुहना अपने बाड़े में चारपाई डाले चन्द्रमा को देख रहा था। चन्द्रमा की शीतल किरणें उसे दग्ध रही थी वैसे ही, घटई-बढ़ई विरहिनि दुखदाई।’ दिन में तो बादल आकाश में छा जाते थे। लेकिन रात में न जाने कहाँ गायब हो जाते थे? दिन में बादलों को देखकर वह कितना खुश होता किन्तु रात में उनको न पाकर उसकी पीड़ा उमड़ पड़ती थी। कृष्ण जन्माष्टमी की रात कुछ रिमझिम पानी बरसा था पर अष्टमी के बाद धरती पर एक बूंद भी न गिरी। वर्षा की आस में सुहना कभी गोटें गाता तो कभी ठुमरी। अब लगता है गोटें और ठुमरी भी घायल होकर उसके हृदय में कहीं छिपकर बैठ गयी हैं।
सुहना का बाड़ा उसके रिहायसी घर से करीब एक फर्लांग दूर था। अपने हाथों बनाये हुये घर में वह करीब पांच साल से नहीं लेटा है। जब से बहू आई तब से उसने वह घर पूरी तरह से छोड़ ही दिया था। केवल सुबह शाम खाना खाने जाता था। भला अपने परिश्रम से बनाये हुये घर का मोह इतनी आसानी से कैसे छूट सकता है।
सुहना की पत्नी गोरी बाई ने बाड़े का ट्टटर खोला। ट्टटर के खुलने की आवाज से सुहना की दृष्टि उस तरफ गयी। उसने गोरी बाई को देखा। चन्द्रमा के प्रकाश में उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा था। सुहना ने लेटे ही लेट कहा‘ ‘कौन?’ गोरीबाई ने ट्टटर को बाँधते हुये कहा- ‘मैं हूँ।’ टट्टर को अच्छी तरह बाँध देना। छूटे हुये जानवर बाड़े में घुस आते हैं और भैंसों की सानी खा जाते हैं, भैसों को भी मारते हैं। कल भूरी भैंस खूँटा उखाड़कर भाग खड़ी हुई थी।
गोरीबाई ने गगरी को उठाया और वहीं पर हैण्डपम्प में उसे धोया। पानी भरकर गगरी सुहना की चारपाई के नीचे रख दी। लुटिया भर कर सुहना को पकड़ा दी। गगरी को ढक्कन से ढक दिया। गोरीबाई पानी देकर नीचे बैठने लगी तो सुहना उसे डपटते हुये बोला- ‘नीचे न बैठ, कीड़ा मकोड़ा काट लेगा तो आफत हो जायेगी।’
‘ऐसे नहीं काटते हैं।’ इतना कहते हुये वह वहीं पड़ी हुई ईट पर बैठ गयी।
हाँ, तुझे बताकर आयेगा कि मैं तुझे काटता हूँ। चारपाई पर बैठने में शर्म लगती है क्या?’
‘बादल तो दिखते नही हैं?’ गोरीबाई अनसुनी करके बोली।
‘तेरी ये बहुत बुरी आदत है, किसी की बात ही नहीं मानती है। कोई कुछ कह रहा है’?
बरबस गोरीबाई को चारपाई पर बैठना पड़ा। सुहना चारपाई के एक तरफ खिसक गया।
‘ज्वार की पत्तियां सूखकर बत्ती बनती जा रही हैं, अब तो खेतों की तरफ देखा नही जाता है।’ गोरीबाई ने एक गहरी सांस ली।
क्या किया जाये? अपने बस की तो बात है नहीं।’ सुहना के मुख से पके फोड़े जैसी कराह निकली।
‘ढिल्लन सुबह कह रहा था किसी प्रदेश में फसलें नष्ट हो जाने से किसानों ने आत्म हत्या कर ली है। कहता था ये बातें अखबार में छपी हैं।’ गोरीबाई ने अपने पुत्र द्वारा दी जानकारी सुहना को बताई।
‘खूब मर जायें, मैं क्या कर दूँ। साल हारी, जनम नहीं हारा। इस वर्ष न सही अगली साल फसल अच्छी होगी।’ सुहना तल्ख स्वर में बोला।
‘जिन्दगी संग्राम है, लड़ना तो पड़ेगा ही। आत्महत्या का क्या औचित्य है?’
‘तू क्या चाहती है, मैं भी आत्म हत्या कर लूँ?’ सुहना उबल पड़ा।
‘मुंह से कभी सीधी बात नहीं निकलती है। जिन्दगी गुजर गयी ऐसे ही उल्टी बाते सुनते-सुनते।’ गोरीबाई खीझ गयी।
‘तुझे कहने के लिये और बातें नहीं आती है क्या? सुहना बिगड़कर बोला- ‘मुझे दिखाई नहीं देता है क्या कि बादलों का नामोनिशान नहीं है। पानी कहाँ से बरसेगा।’
‘समुन्दर सूख गया क्या? कहते हैं समुन्दर का पानी ही बादल बनकर आता है।’
गोरीबाई ने नरमी के साथ अपने थोड़े बहुत ज्ञान का परिचय दिया।
‘हाँ समुन्दर सूख गये हैं। पकी फसल जब खड़ी होती है तब समुन्दर उमड़ाने लगता है- खूब वारिश होती है। पिछले वर्ष नहीं देखा था?
गोरीबाई सोच रही थी कि ईश्वर ने सारी मर्द जाति को उल्टा बनाया है क्या? इनसे सीधे बात करो तो उल्टे बोलेगें, बादलों की बात करें तो वह भी उल्टा है- बेमौसम बरसात कर देता है, किसानों को मारे डालता है।
‘कुँवर ब्लाक से लौट आये या नहीं’। सुहना के स्वर में व्यंग्य के साथ तल्खी भी थी।
‘आ जायेगा, अभी रात के नौ ही तो बजे हैं।’ गोरीबाई ने लापरवाही से बताया।
‘मैने सौ बार रोक दिया है कि पानी बरस नहीं रहा है, खाद बीज लेकर क्या करेगा? लेकिन वह सुनता ही कहाँ है? दोस्तो के साथ गया होगा तो पीकर भी आयेगा। उसकी कोई दर नहीं है।
‘वो पीता कहाँ है? आप तो लड़के को लगाये रहते हो।’ गोरीबाई ने झूठा गुस्सा प्रकट किया।
‘तू मुझे बौरया मत, मैं सब जानता हूँ।’ सुहना चेतावनी भरे लहजे में बोला- ‘तू छिपाती रह, एक दिन यह लड़का पुरखों की जायदाद दारु में उड़ा देगा।’
‘उसे दिखाई नहीं देता है क्या, वह भी अपना अच्छा बुरा समझता है।’ गोरीबाई हार नहीं मान रही थी।
उसे दिखाई देता है या नहीं किन्तु तुझे बिल्कुल दिखाई नहीं देता।’ सुहना चारपाई से उठ बैठा- ‘उसे समझा देना, मुझे पिये हुये मिल गया तो एक लट्ठ में सीधा कर दूँगा। अगर तू बीच में आई तो तुझे भी नहीं छोड़ूँगा।
गोरीबाई चुप हो गयी। वह कैसे समझाये कि लड़का बराबरी का है। कुछ कर बैठे तो हम कहाँ जायेगें। इसे कुछ समझ में ही नहीं आता है।
गोरीबाई ने सुहना को पीने को पानी दिया। उसने पानी पीकर लुटिया गोरीबाई को थमा दी और कहा- ‘घर जा, बहू अकेली है।’
गोरीबाई खड़ी हो गयी और जहाँ भैंसे बंधी थी, वहाँ पहुँच गयी। नांदों की सानी को उल्टा पल्टा कर भैसों की पीठ पर हाथ फिराकर पुचकारने लगी। भैंसें भी आत्मीयता पाकर उसे सूँघने लगीं। भूरी भैंस ने सिर उठाया और गोरीबाई के शरीर से रगड़ने लगी। उसने भैंस की गर्दन पर हाथ फिराया और घर को लौट गयी। सुहना ट्टटर तक उसके साथ आया। गोरीबाई के निकल जाने पर उसने ट्टटर अच्छी तरह से बाँध दिया।
मुरगा ने बाँग देकर सुबह चार बजे का ऐलान किया। गोरीबाई ने बिस्तर छोड़ दिया। हाथ मुँह धोया और दूध दुहने वाले बर्तन उठाकर बाड़े में पहुँच गयी। सुहना ने जागकर टट्टर खोल दिया था। गोरीबाई ने अट्टालिका से भूसा निकाला और जानवरों के लिये भूसे की सानी बनाई। सुहना ने जानवरों की नादों में सानी डाल दी। भैसे उठकर सानी खाने लगी। गोरीबाई ने भैंसों का गोबर उठाकर एक तरफ इकट्ठा डालकर उस स्थान की सफाई कर दी। सुहना भैसें, दुहने लगा। अब सुबह के छैः बज चुके थे। ढिल्लन भी बाड़े में आ गया था।
ढ़िल्लन, सुहना एवं गोरीबाई का इकलौता पुत्र हैं उसकी शिक्षा इण्टरमीडिएट तक है। वह आधुनिक तरीके से खेती करने में अपने पिता के साथ हाथ बँटाता है। कृषि यंत्र भी उसके आधुनिक है फिर भी प्राकृतिक प्रकोप तथा पानी का उचित प्रबन्ध न होने के कारण पैदावार उतनी नहीं हो पाती है, जितनी होनी चाहिये। यद्यपि गाँव में टी0वी0, रेडियो, सी0डी0 प्लेयर आदि मनोरंजन एवं ज्ञान बढ़ाने वाले साधन हैं। किन्तु बिजली कम आने से टी0वी0 का कार्यक्रम लोग कम देख पाते हैं। ये लोग फिल्मों के हीरो-हीरोइन, क्रिकेट खिलाड़ी एवं टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा के बारे में अच्छी जानकारी रखते हैं। कोई न कोई खिलाड़ी उनका आदर्श भी है। प्रत्येक मुहल्ले की अपनी अलग-अलग क्रिकेट टीम है। ढ़िल्लन अपनी क्रिकेट टीम का कप्तान है। उसकी बैटिंग एवं बालिंग दोनों अच्छी है। इसके साथ ही वे अपनी ग्राम संस्कृति को अपनाये हुये हैं। पाप सिंगरों को भी ये विशेष महत्व देते हैं।
सुहना ने ढ़िल्लन को देख लिया था। उसने पूछा- ‘खाद, बीज ब्लाक में आ गये या नहीं।’
‘अभी नहीं आये हैं, शायद अगले हफ्ते तक आ जायेगें।’ ढिल्लन ने संक्षिप्त एवं धीमे स्वर में जवाब दिया।
बाड़े के गेट से बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। सुहना ने बच्चे को देखा और दौड़कर उसके पास पहुंच गया। वह तीन वर्षीय सुहना का पोता छोटू था। उसके पैर में काँटा चुभा हुआ था। सुहना ने उसके पैर का काँटा निकाला और गोद में उठा लिया। छोटू की नाक बह आई थी, सुहना ने अपने सिर के अंगोछे से नाक पौंछी और बाड़े में बिछी हुई चारपाई पर खड़ा कर दिया। सुहना गोरीबाई की तरफ मुँह करके बोला- ‘बहू लाहर कमा रही है क्या, छोटू को ऐसे ही छोड़ दिया?
‘वो काम कर रही होगी, तभी यह निकल आया होगा।’ गोरीबाई ने उपले पाथते हुये कहा।
सुहना छोटू से बहुत प्यार करता था। वह उसे कंधे पर बिठाये पूरे गाँव में घुमाता था। किन्तु बहू और बेटे से कभी सीधे मुँह बात नहीं करता था। यह बात नहीं थी कि वह उन्हें प्यार नहीं करता था। सामने प्यार जताने पर लड़का बिगड़ सकता है। शायद यह उसका दर्शन था।
अब तक जानवर सानी खा चुके थे। सुहना ने जानवरों को प्यासा जानकर ढिल्लन से अपने स्वभानुरूप कहा- चल रे! हैण्डपम्प चला दे, मैं भैसों को पानी पिला दूँ।
ढिल्लन तो अपने पिता के स्वभाव से पूर्ण परिचित था ही। उसके मित्रों ने उससे कई बार कहा- ‘यार तुम्हारा नन्ना तुमसे हमेशा खुन्नश क्यों खाये रहता है?’’ इस पर ढिल्लन कहता यदि नन्ना इतने कड़क न हों तो मैं और बिगड़ जाऊँ। मित्रों को भी यह बात अब समझ में आने लगी थी।
ढिल्लन हैण्डपम्प चलाने लगा। सुहना एक-एक बाल्टी उठाकर जानवरों के आगे रख देता। एक घण्टे के कठिन परिश्रम से भैंसें पानी पीकर तृप्त हो गयीं। बचा हुआ पानी सुहना ने भैंसों की पीठ पर डाल दिया।
ढिल्लन भी अब नहा लेना चाहता था। वह पानी की बाल्टी भरकर बाथरूम में ले गया। उसने कपड़े उतार कर वहीं चारपाई पर रख दिये। नहाकर वह घर चला गया।
दस पन्द्रह लड़के सुहना के बाड़े में आये। सभी ने सुहना से राम-राम की। सुहना ने कड़क कर पूछा- ‘‘कैसे?’’
‘नन्ना हम सबने विचार किया है कि देवताओं के स्थान पर कीर्तन बैठा दी जाये तो पानी जरूर बरसेगा।’ उनमें से एक लड़के ने अपनी कार्य योजना सुनाई।
‘हां-हां, तेरा बाप भी भूत-भुतनियों को अण्डा मुर्गा देते -देते पचासा पार नहीं कर पाया और मर गया। अब उसकी जिम्मेदारी तू निभाने लगा है।’ सुहना ने व्यंग्य किया।
लड़कों को इन बातों का बुरा नहीं लगा। क्योंकि वे सुहना के विचारों से परिचित थे। वे तो यह सोचकर ही आये थे कि सुहना नन्ना के पास जायेगें तो भोग तो सुनने पड़ेगे। किन्तु दान देने में पीछे नहीं हटेंगें।
‘नन्ना देवता सच्चे हैं हमारी प्रार्थना जरूर सुनेगें।’ उनमें से दूसरा बोला।
‘काहे को चक्कर में पड़े हो रे! पथरा पूजने से कही पानी बरसता है। इतना दमखम हैं तो सरकार से कहो कि यहाँ की जर्जर नहर लाइनों को ठीक करवायें और टेल तक पानी पहुंचायें, तभी कल्याण होगा बरना पुरखा मर गये पत्थर पूजते-पूजते तुम भी मर जाओगे।’
‘आज तो नहर का जीर्णोद्वार हो नहीं पायेगा नन्ना! इसलिये आप हमें चन्दा दे दो, हम देवताओं की पूजा एवं कन्या भोज करके पानी बरसायेगें।
‘सुन’ सुहना अपनी पत्नी गोरीबाई की तरफ मुखातिब होते हुये बोला‘ ‘इन्हें चन्दा दे देना। ये ससुरा कन्या भोज करें या मुरगा दारू?’
‘भैया, थोड़ी देर बाद घर आ जाना तब तक मैं पहुंच रही हूँ।’
लड़के चले गये।
सुहना जितना कड़क था, गोरीबाई उतनी ही दयालु। गरीबों की लड़कियों की शादी में प्रत्येक साल गल्ला और पैसों से उनकी सहायता करती थी। दो गरीब लड़कियों के पुण्य विवाह भी उसने किये थे। सुहना गोरीबाई के इन कामों का विरोध नहीं करता था। हां मुंह से तो कुछ न कुछ बकता रहता था।
लड़कों के चले जाने पर गोरीबाई सुहना से बोली- ‘तुम, किसी से सीधे मुंह बात क्यों नहीं करते हो?’
‘तू क्या जाने?’ सुहना उसे समझाते हुये बोला- ‘इतना कड़क न होता तो ये तेरी सौ बीघा जमीन है न, जाने कौन छीन लेता। देखा नहीं लेागों ने कितने प्रयत्न किये। खेत किसान का सर्वस्व होता है। खेत नहीं है तो किसान काहे का, वह तो मजदूर है मजदूर। खेतों में क्या पैदा होता है, क्या नहीं, किसान को इसका कोई मलाल नहीं है, उसे तो उन खेतों की मिट्टी से प्यार हैं वह तो उसकी खुशबू सूँघने का आदी है।’
‘ये बात तो तुम्हारी ठीक है पर तुम देवी-देवताओं को भी नहीं छोड़ते हो। अगला जन्म सुधर जायेगा इसलिये तो देवताओं की प्रार्थना की जाती है।’ गोरीबाई पूर्ण आस्था से सुहना को समझाने लगी।
अगला जन्म होता है या पिछला जन्म होता है। इसका मुझे ज्ञान नहीं है। मैं तो इसी मिट्टी में जीना चाहता हूँ और इसी में मरना चाहता हूँ। तू अगला जन्म सुधार ले, मैं तुझे रोकता नहीं हूँ, और न कभी रोका है।’ सुहना अब अच्छे मूड में दिख रहा था। वह गोरीबाई के नजदीक आता हुआ बोला- ‘मेरे सामने लोग बातें नहीं करते हैं क्योंकि वे हवा में उड़ते हैं और मैं जमीन में चलता हूँ। हवा में उड़ना सबको अच्छा लगता है। किन्तु खुरदरी जमीन में चलना हर एक के वश की बात नहीं है।’
गोरीबाई हँस पड़ी। उसने आखिरी उपला बनाकर एक तरफ रखा और बोली- ‘‘आप नहीं सुधरेगें।’
‘‘हमारे बाप मर गये हमें सुधारते-सुधारते, हम नहीं सुधरे। अब मुझे कौन सुधारेगा।’’ इतना कहकर सुहना हँस पड़ा।
गोरीबाई ने हैण्डपम्प चलाया हाथ धोये और घर की तरफ चल पड़ी।
भादों का महीना गुजर चुका था, क्वार के महीने ने अपने तीन कदम आगे बढ़ा लिये थे। कीर्तन भण्डारा एक देवता के स्थान पर पूर्ण होता- दूसरे स्थान पर शुरू हो जाता- फिर तीसरे स्थान पर लोग निराश होते जा रहे थे। यह निराशा उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी।
किसानों की यह निराशा बादलों को सहन न हो सकी। मुई खाल की श्वांस से सार को भस्म करने वाली आह से आकाश में घने काले बादल छाने लगे। भयानक गर्जना और बिजली की कड़क से किसानों के हृदय आनन्द से भर गये। पहले बूँदा-बाँदी हुई फिर झर-झर कर झड़ी लग गयी। खूब बरसा हुई। खेत तालाब बन गये। पूरे गाँव में रौनक लौट आई। लोगों के होठों से अनायस गीत निकलने लगे। सुहना की घायल गोटें और ठुमरी अंगड़ाई लेकर मचल-मचल कर होठों पर थिरक उठी।
पन्द्रह दिन बाद खेत जुताई के योग्य हो गये। ट्रैक्टर, हल बैल जुताई के लिये खेतों पर पहुँचने लगे। ढिल्लन भी अपना ट्रैक्टर लेकर खेत पर पहुँच गया। उसने तीन दिन में अपने सारे खेत जोत डाले। जो हल से जोत रहे थे उनके खेत अभी जुताई के लिये रह गये थे।
लोग ब्लाक जाकर खाद बीज खरीद रहे थे। दो दिन बाद बुबाई जो करनी थी।
विजयादशमी के तीन दिन बाद तक सभी के खेतों की बुबाई हो गयी थी। केवल गेहूँ बोने वाले ही कुछ खेत रह गये थे। गेहूँ की बुबाई का समय अभी आया नहीं था।
क्वार मास की पूर्णिमा उन लोगों के लिये विशेष महत्वपूर्ण थी। इस दिन झिंझिया और टेसू के विवाह का कार्यक्रम होता है। जनश्रुति के अनुसार झिंझिया (नायिका) और टेसू (नायक) का विवाह इसी पूर्णिमा के दिन होना था किन्तु किसी कारणवश उनका विवाह नहीं हो सका। जनपद हमीरपुर में झिंझिया का खेल एवं जनपद जालौन में टेसू का खेल खेला जाता है। जनपद जालौन में छोटे-छोटे बच्चे टेसू का पुतला बनाकर द्वार-द्वार टेसू के गीत गा-गाकर पैसे एवं अनाज मांगते हैं। जबकि हमीरपुर में पूर्णिमा के चार दिन पहले से स्वांगों की रिहर्सल होती है। लोग प्रसन्नता से चन्दा देते हैं। जनरेटरों की व्यवस्था की जाती है। गाँव की अधिकांश गलियों में रोशनी की व्यवस्था जनरेटर चलाकर राडों से की जाती है। स्त्री-पुरुष और बच्चे अपने घर के दरवाजे के पास बने हुये चबूतरों में बैठ जाते हैं। और स्वांगों का आनन्द लेते हैं। स्वांग करने वाले सभी पुरुष गाँव के ही होते हैं। स्त्रियों की उसमें भागीदारी नहीं होती है। इस दिन वे अपनी कला की पराकाष्ठा पर पहुँच जाते हैं।
क्वार की पूर्णिमा, उजला-उजला चन्द्रमा आज लोगों को बहुत मोहक लग रहा है। लोग खीर पूड़ी का आनन्द ले रहे थे। यद्यपि गांव में बिजली की व्यवस्था थी किन्तु बिजली कब आये और कब चली जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिये दो जनरेटर चल रहे थें जगह-जगह लकड़ी के खम्भों में लगाये गये राड दूधिया रोशनी से वातावरण को जगमगा रहे थे। रात्रि भोजन के उपरान्त गाँव के सभी लोग अपने-अपने स्थान लेकर बैठ गये थे। बच्चे अपना स्वांग निकाल रहे थे। बच्चों के स्वांगों से लोग हँस रहे थे। कुछ पुरुष महिलाओं वाली साड़ी पहनकर महिलाओं का किरदार निभा रहे थे। कोई गाँव के चार-पाँच आवारा कुत्तों को एक रस्सी से बांधकर खाना बदोस लोगों की असल भूमिका निभा रहे थे। पछइया लुहार की भूमिका तो हू ब हू राजस्थानी बोली बोलकर निभा रहे थे। राम लक्ष्मण की झांकी एवं कृष्ण-गोपिकाओं के संवाद बोलकर लोगों को आध्यात्मिक आनन्द प्रदान करा रहे थे। ये लोग नुक्कड़-नुक्कड़ जाकर अपने रटे-रटाये डायलाग बोलते थे। कुछ लोग हटकर भी बोल देते थे जिसका उत्तर उन्हें अपनी प्रत्युत्पन्नमति से ही देना पड़ता था।
एक स्वांग के पीछे बच्चों की भीड़ थी। बच्चे बहुत शोर कर रहे थे। पहले ही नुक्कड़ पर वह स्वांग शुरू हुआ। वहाँ काफी बड़ा आँगन था। आमने सामने मकान बने हुये थे। द्वार-द्वार पर चबूतरे थे। इस मैदान को सेठ वाला मैदान कहा जाता है। रतन सेठ का घर उसी आँगन के कोने में था। सेठ बहुत ही मृदुभाषी था। उसकी दुकान खूब चलती थी। कभी-कभी उसका मधुर संभाषण अतिक्रमण भी करने लगता था। इसी सम्भाषण की दम पर अपना वह माल दुगुना करता रहता था। इस स्वांग का टाइटिल था ‘घुल्ला की बैठक’। इस स्वांग में ढिल्लन व उसके साथी अभिनय कर रहे थे। कुछ जनाना धोती तो कुछ मरदाना धोती पहने हुये थे।
ढिल्लन इस स्वांग का मुख्य पात्र था। उसने पुरुष वाली धोती कमर में लपेट ली थी। शेष पूरा शरीर नंगा था। धोती को कमर के चारों तरफ से खोंसे हुये था। वह घुल्ला का अभिनय कर रहा था। देवता उसके सिर से बोल रहा था। पंडा बना हुआ लड़का हाथ में गोबर का सूखा कंडा लिये हुये था। एक स्थान पर बैठकर पंडा ने कंडे में कैरोसिन आयल डाल दिया और माचिस की जलती हुई तीली से कंडे में आग लगा दी। तेल लौ के साथ जलने लगा। युवाओं ने भजन गाने शुरू कर दिये।
ढिल्लन अब अंगड़ाई लेने लगा। वह मुँह से पुच्च पुच्च की आवाज निकालने लगा। बीच-बीच में हू-हू भी करता जा रहा था।
कंडा में कैरोसिन आयल का पुनः छिड़काव कर दिया। कंडा लौ के साथ तेजी से जलने लगा। इस बार ढिल्लन बड़ी जोर से उछला, कूदा। मंह से दिल दहला देने वाली आवाज निकाली। पंडा ने घुल्ला को शांत करने के उद्देश्य से उसके सिर पर अंगौछा बाँध दिया।
-‘‘महाराज! कौन हो आप?’ पंडा ने पुनः तेल की आहुति देते हुये पूछा।
-‘ढिल्लन।’
शांत वातावरण अचानक ठहाकों से गूँज उठा। पंडा ने धीरे से उसे कुहनी मारी- ‘‘महाराज’’ ढिल्लन तो घुल्ला का नाम है। आप देव हैं, दानव हैं, भूत है या ..........?
ढिल्लन बड़ी जोर से उछला और मुँह से भयानक आवाज निकाली- ‘‘गोटीराम मैं हुकरादेव हूँ, जो कूछ पूछना हो जल्दी पूछो, घुल्ला कमजोर है, ज्यादा सवारी सहन नहीं कर सकता है।’’
-‘‘महाराज घुल्ला की चिन्ता न करो, खूब भैंस का दूध पीता है। पूरा पट्ठा है।’’ पंडा ने नीबू काटते हुये कहा।
-‘‘गोटीराम! मैं सब जानता हूँ। देवता से कुछ छिपा नहीं है। यह जितना दूध पीता है उतनी ही दारू पीता हैं। शरीर खोखला करता जा रहा है।’’ इतना कहकर घुल्ला ने बड़ी तेजी से हुर...र..र... र... करते हुये सिर हिलाया।
-‘महाराज फरियादी खड़े हैं, अभी चले नहीं जाना।’ पंडा ने ढिल्लन के चेहरे को देखा और उसके हाथ में दो फुट लम्बी लोहे की जंजीर पकड़ा दी।
उन्हीं में से एक लड़का हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अर्ज करता हुआ बोला-
-‘‘महाराज! मैं रतन सेठ हूँ। कई वर्षों से लड़का ढूँढ़ रहा हूँ। मुझे बेटी के लिये लड़का नहीं मिल पा रहा है।
-‘‘सेठ! तेरी बेटी कितने साल की है। घुल्ला ने जोश में आकर आग की लौ को मुँह में भरते हुये पूछा।
-‘महाराज’ मेरी बेटी अट्ठाइस साल की हो गयी है।’ सेठ बना लड़का विनम्रता से बोला।
-हूँ- ऽऽऽ..।’ घुल्ला ने दहाड़ मारी- ‘‘सेठ तेरी लड़की को तीस साल का वर चाहिये। अब तीस साल का वर मिलना तो मुश्किल है।’’ घुल्ला ने बड़ी तेजी से जंजीर अपनी पीठ पर दे मारी और आकाश की तरफ सिर करके बोला- ‘‘गोटीराम, तू तीस साल के वर के चक्कर में मत पड़। अपनी लड़की के लिये पन्द्रह-पन्द्रह साल के दो लड़के ढूढ ले।’’ समझ ले, देवता कभी झूठ नहीं बोला है।’’
‘बोलो हुकरा देव की जय।’ पंडा ने नारा लगाया। पूरा वातावरण हुकरादेव की जय से गूँज उठा। सभी दर्शक प्रसन्नता से झूम उठें। वह लड़का एक तरफ हट गया। और किसी की फरियाद हो तो थान पर जल्दी आ जाये। हमारे हुकरा देव पूरी कर देगें। पंडा ने हाँक लगाई।
महिला भेष में एक लड़का ढिल्लन के सामने आया। वह ढिल्लन का मित्र ही था। सामने आकर बोला- ‘‘महाराज आप तो अन्तर्यामी हो, सब जानते हों, आजकल पानी मुश्किल से बरस रहा है। घोर कलयुग आ गया है। गाँव में बहुत पाप बढ़ता जा रहा है।’
घुल्ला ने अंगड़ाइ ली। जंजीर पर हाथ फिराते हुये वह बोला- ‘‘जब तक तेरे जैसी छिनार गाँव में रहेगी तब तक पाप नहीं बढ़ेगा तो क्या पुण्य बढ़ेगा।’’ घुल्ला की इस बात पर पूरा दरबार ठहाकों से गूंज उठा।
-‘‘महाराज! उपाय बता दो?’’ वह लड़का बड़े स्टाइल में घूँघट काढ़ कर बोला।
‘सुन! तुझे एक बकरा, एक बोतल शुद्ध महुआ की दारु देनी पड़ेगी। इसके पश्चात चार रातें घुल्ला के यहाँ बितानी होगी तभी तेरा व गाँव का पाप दूर होगा।’ घुल्ला जोर से जंजीर लहराते हुये बोला- ‘बोल मंजूर है।’
-‘‘महाराज मंजूर है। आप बहुत सच्चे हो। आपने मेरे मन की मुराद पूरी कर दी।’’ उसकी बातों को सुनकर सभी हँस रहे थे साथ ही स्वांग की तारीफ करते जा रहे थे।
साड़ी पहने वह लड़का हट गया।
अब तीसरा लड़का घुल्ला के सामने आया। वह भी साड़ी पहने हुये था। वह कभी मुँह खोल लेता था, कभी घूंघट काढ़ लेता था। वह अन्दर ही अन्दर शरमा भी रहा था। वह घुल्ला के पैर पकड़ते हुये बोला- ‘‘महाराज मैं ढिल्लन के घर से हूँ।’’ मैदान में बैठी हुई महिलाएँ खिलखिलाकर हँस पड़ी।
-‘‘ये तो घर की बात थी। घर पर चाहे जब पूछ लेती।’’ इस बार घुल्ला शांत नजर आ रहा था। वह मन ही मन सोचने लगा कि न जाने अब ये क्या पूछेंगे?
-‘‘महाराज घर में फरियाद पूरी हो जाती तो मैं यहां क्यों आती।’’ ढिल्लन की पत्नी बना वह लड़का बड़ी मायूसी से बोल रहा था।
-‘‘महाराज मेरा पति मुझसे प्यार नहीं करता है। इधर उधर ज्यादा मुँह मारता है। आप तो अन्तर्यामी हैं। ऐसी ताबीज बना दो कि ये किसी की तरफ देखें तक न।’’ ठहाकों से पुनः वातावरण गूँज उठा।
-‘‘ठीक है, मैं ताबीज बनाये दे रहा हूँ, तू उसकी कमर से बाँध देना। एक छोर तू पकड़े रहना, वह कहीं नहीं भाग पायेगा।’ इतना कहकर एक ताबीज राख में लपेटकर उसके हाथ में रख दी।
अब घुल्ला ने चारों तरफ देखा और हुर-र र करते हुये कहा -‘देव प्रस्थान करना चाहता है। अब घुल्ला पस्त हो गया है।’
‘नहीं महाराज! एक फरियाद गाँव की तरफ से है।’ पंडा बना युवक सामने आ गया। हाथ जोड़कर बोला- ‘महाराज! हमारे यहाँ पानी का कोई साधन नहीं है। अगर पानी की व्यवस्था हो जाये तो अच्छा रहेगा।’
अबकी बार घुल्ला ने अपनी पीठ पर कसकर जंजीर दे मारी। घुल्ला के मुख से पीड़ा भरी कराह निकली, किन्तु वह उस पीड़ा को जब्त कर गया। जंजीर लहराते हुये वह बोला- ‘‘यह फरियाद तो बहुत कर्री है। फिर भी मैं सुझाव देता हूं कि सब गाँव वालों को मिलकर नालों में, खेतों में, डैम बनाने होगें। जैसे रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह ने नदी की संसद बनाई थी। बरसात का पानी इकट्ठा कर लो, उसे बरबाद मत होने दो। जहाँ सरकारी डैम बन रहे हों, वहाँ सरकार के कार्यां में मदद करो। निश्चित रूप से पानी की समस्या दूर हो जायेगी। युवाओं को आगे आना होगा। घुल्ला ने पुनः एक जोरदार चीख अपने मुँह से निकाली- ‘‘बोलो, अगर सभी गाँव वाले तैयार हों तो हुकरा देव भी पीछे नहीं रहेगा।’’
हुकरा देव की इस बात पर पूरे वातावरण में एक स्वर गूँज उठा- ‘‘हम सब तैयार हैं।’’
इतना सुनकर घुल्ला उछला और पीछे जाकर धच्च से धरती पर जा गिरा। पंडा ने उसके शरीर पर राख मल दी।
पुनः गगन भेदी नारा गूँजा ‘हुकरा देव की जय।’
घुल्ला वाला स्वांग अगले नुक्कड़ की तरफ बढ़ गया।
गाँव के इस कार्यक्रम का संचालन चैधरी रामधन जी कर रहे थे। एक स्वांग के निकल जाने के बाद तैयार खड़े दूसरे स्वांग को वह इजाजत दे देता था ताकि नुक्कड़ों पर ज्यादा भीड़ न हो और एक-एक कार्यक्रम गाँव वाले आराम से देख सकें।
घुल्ला के स्वांग के बाद दूसरा स्वांग था शिक्षा का। यह भी अजीब नजारा। करीब सत्तर वर्ष के सात बुड्ढे स्टूडेन्ट वाली यूनिफार्म पहने हुये थे। उनका टीचर सोलह साल का एक लड़का था। वह अपने साथ एक छड़ी, रजिस्टर तथा पेन लिये हुये था। सभी बूढ़े अपने-अपने चश्मे पहने हुये थे। ये चश्मे उन्हें आँखों के आप्रेशन के बाद सरकार से मुफ्त मिले थे। अपने जमाने के ये झिंझिया के अच्छे कलाकार रहे थे। वे सभी पाटी और खड़िया लिये हुये थे।
वह लड़का जो टीचर का स्वांग कर रहा था। साथ में लाई हुई कुर्सी पर बैठ गया। उसने अपना रजिस्टर खोला और हाजिरी लेने लगा। बुद्धा-यस सर.... लटोरा-यश सर... कढ़ोरा- यस सर.... घसीटा-यस सर। सभी बुड्ढे उछल-उछल कर यश सर कहते और बैठ जाते। सभी दर्शक उन बुड्ढ़ों के स्वांग पर हँस रहे थे। उनके वे नाम वास्तविक नहीं थे।
टीचर अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। और छड़ी लहराते हुये बोला
-‘बुद्धा तू कल क्यों नहीं आया?’ बुद्धा खड़ा हो गया और बड़ी मासूमियत से बोला-‘साब कल मम्मी को लड़का हुआ था इसलिये मैं स्कूल नहीं आ पाया।’’
-हू।’ टीचर ने हुंकार भरी और बैठने का संकेत किया।
‘मास्टर साब।’
‘क्या है? टीचर उखड़ पड़ा- ‘तू बैठा नहीं।’
‘साब हम पाँच भाई हो गये।’ बुद्धा लजाते हुये बोला।
‘क्यों तेरे मम्मी पापा ने परिवार नियोजन नहीं अपनाया। ‘टीचर ने बुद्धा को बड़े प्यार से कहा।
पूरा माहौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
‘साब मम्मी से कह दूँगा कि हमारे मास्टर साब कह रहे थे कि परिवार नियोजन अपना लो।‘ अब बुद्धा अपने स्थान पर बैठ गया।
बूढ़े की ऐसी बातों पर वृद्ध महिलाएं फुसफुसाई- ‘देखो बुढ़रा को शरम भी नहीं आ रही है।’’
टीचर क्लास में घूमता हुआ घसीटा के पास पहुँचा उसकी पीठ पर जोर से छड़ी मार दी और कड़क स्वर में पूछने लगा- घसीटे तू कहाँ जाता है, आये दिन अपसेन्ट बना रहता है।’
-‘मास्टर साब, मैं सरकारी अस्पताल में चैक करवाने गया था।’
-‘क्या बीमारी है तुझे?’ टीचर ने डपटा।
-‘साब खून की जाँच करवाने गया था कि कहीं मुझे एड्स तो नहीं है।’ घसीटा शरमाते हुये हिल रहा था।
मैदान में ठहाके गूँज रहे थे।
टीचर ने अपने हैट को ठीक किया और बोला- ‘क्या बताया डा0 ने?
‘साब मेरी रिपोर्ट ठीक है’।
‘बहुत अच्छा, बैठ जा।’ टीचर ने घसीटा को बैठने का हुक्म दिया।
टीचर इधर-उधर देखने लगा। उसकी नजर कढ़ोरा पर केन्द्रित हो गयी।
‘कढ़ोरे?’ टीचर ने दहाड़ लगाई- ‘एड्स काहे से फैलता है।’?
कढ़ोरा खड़ा हो गया और उंगलियों से गिनता हुआ बोला- ‘साब डा0 की संक्रमित सुई से और ..... और संक्रमित माँ से उसके होने वाले बच्चे को ............... और .............. और..............?
-‘अरे बोल, चुप क्यों हो गया? मास्टर ने फटकार लगाई।
-‘साब बाकी लटोरा से पूछ लो, मुझे शरम आती है।’ कढ़ोरा बच्चों की तरह हँस पड़ा।
‘तू ही बता, शरमा मत।’ टीचर उसके नजदीक आकर बोला।
‘साब असुरक्षित यौन सम्बन्ध से भी एड्स फैलता है।’
‘वैरी गुड कढ़ोरा।’ टीचर ने शाबासी दी।
अब लटोरा खड़ा हो गया। टीचर का ध्यान उसकी तरफ हो गया।
मास्टर साब, घसीटा को एड्स हो जायेगा।’
‘-क्यों?’ टीचर की आँखें सिकुड़ी।
‘इसे साब कुछ ज्ञान नहीं है।’
लटोरा की बात सुनकर घसीटा खड़ा हो गया। वह तपाक से बोला- ‘साब इसे ही फैलेगा, मुझे नहीं, देखो मेरी जेब में कण्डोम है।’ इतना कहकर बहुत सारे कण्डोम दर्शक दीर्घा की तरफ उछाल दिये।
स्त्रियां थोड़ा शरमा रही थी। फिर भी हँस रही थी।’
इसी तरह अनेक स्वांग निकलते गये। सुबह चार बजे इन स्वांगों का कार्यक्रम समाप्त हुआ। लोग अपने-अपने घरों में सोने चले गये।
सुबह स्वांगों की खूब चर्चा हो रही थी। लोग एक दूसरे को स्वांग बता रहे थे कि किस तरह से किसने अभिनय किया है। लोग कह रहे थे स्वांगों की ज्यादा रिहर्सल भी न हो पायी थी फिर भी अच्छे जम गये थे।
एक माह के अन्तराल में खेत हरे-भरे दिखने लगे थे। किसान खेतों को देख आनन्द से झूम उठते थे। लहलहाती फसल ने उनके सारे दुख-दर्द दूर कर दिये थे। कुछ आवारा किस्म के लोगों को इस झूमती-इठलाती फसलों में कोई आकर्षण नहीं दिखाई दे रहा था। उनका आकर्षण दारु थी जिसे पीकर गाँव में उपद्रव कर देते थे। अधिकतर लोग इन दारुबाजों से त्रस्त थे।
जब मनुष्य को आनन्द प्राप्त होता है तो समय कब गुजर जाता इसका पता हीं नहीं चलता है। यही हाल किसानों का था। चैत्र मास कब आ गया, यह तो उन्हें फसलों के पक जाने पर भान हुआ। लोगों ने हँसिया-खुरपी तैयार किये। खेतों की कटाई शुरु हो गयी। चैतुआ चैत्र मास के गीत मधुर स्वर में गाते। वे गीत बसन्त की बयार में घुलकर कानों में मधु सा उड़ेल रहे थें। लोग सुबह ही खेतों को निकल जाते और देर रात तक घर लौटते। कपड़े मैले हो गये थे किन्तु उन्हें इसकी परवाह नहीं थी।
सुहना नन्ना के पास ट्रैक्टर और थ्रेसर थे। कुछ अन्य किसानों के पास भी ये कृषि यंत्र थे। किन्तु अधिकांश किसान बैलों द्वारा खेती करते थे। ट्रैक्टर वालों का अनाज जल्दी घर आ गया।
कुछ किसानों ने भाड़ा देकर लाक की मड़ाई करवा ली थी। अन्य किसानों ने डीजल के भाव को देखकर अपने हाथ सिकोड़ लिये थे और बैलों से ही मड़ाई करने का फैसला कर लिया था। थ्रेसर वाले को पहले डीजल देना पड़ता था, बाद में मड़ाई का भाड़ा भी। ग्राम समाज की पड़ी हुई जमीन पर खलिहान बनाकर खेतों से लाक उठाकर यहाँ रख रहे थे ताकि बैलों से मड़ाई कर सकें। किसान सपरिवार खलिहानों में कार्य करने लगे।
दोपहर का समय था। पछुवा हवा लू बनकर शरीर को झुलसा रही थी। तभी लोगों ने देखा खलिहान से ध्आँ का गाढ़ा गुबार आकाश की ओर उड़ने लगा। देखते-देखते उस धुएं से आग की भयंकर लपटें उठने लगीं। लाक के साथ वहां खड़े, हुये पेड़ चट्-चट् की आवाज के साथ जलने लगे।
पूरे गाँव में हड़कम्प मच गया। लोग गगरी बाल्टी लेकर आग बुझाने पहुँचे तब तक पूरे खलिहानों को आग ने अपनी चपेट में ले लिया था। भीषण गर्मी और आग की लपटें लोगों को अपने पास फटकने भी नहीं दे रही थी। लोग बकरे की बलि दे रहे थे। महिलायें दही से भरे हुये बर्तन आग में फैंक रहे थे। उनका विश्वास था बलि और दही से देवी शांत हो जाती है। हवा और प्रचण्डता के साथ बहने लगी।
अब लपटें अपने क्षेत्र का विस्तार करते हुये खपरैल वाले घरों पर हावी होने लगी। एक से दूसरे में ......... दूसरे से ...........। लोग असहाय से हो गये। फायर बिग्रेड को फोन से सूचना दे दी गयी थी।
फिर भी लोग आग पर काबू पाने का असफल प्रयास करते रहे। तालाब सूख चुके थे। हैण्डपम्पों का सहारा लिया किन्तु सब व्यर्थ। पूरा गाँव राख में तब्दील हो चुका था। दिन में आग लगी थी अतः जानें तो नहीं गयी पर घरों में कुछ न बचा। घर के बर्तन पिघलकर बह गये थे।
फायर बिग्रेड आ चुकी थी लेकिन उसको करने को कुछ नहीं बचा था। सब जलकर खाक हो चुका था। दमकल वाले अब खाक की आग को बुझाने में लगे हुये थे।
लोग गश खाकर गिर रहे थे। महिलाएँ पछाड़े खा रही थी। साल भर की कमाई दो घण्टे में स्वाहा। लोग पागलों की तरह जमीन में पड़े चिल्ला रहे थे। शायद सचमुच ही वे पागल हो गये थे।
आस-पास के गाँव वालों ने उनकी खूब मदद की। दस-पन्द्रह दिनों के खाने का इन्तजाम भी उन्होने कर दिया था। सरकार की तरफ से कोटेदारों ने गल्ला बाँटा था।
सरकार की तरफ से अग्निपीड़ितों को सहायतार्थ धनराशि वितरण के निर्देश दिये गये। हाल ही की घटना से सबको दुख हो रहा था। जैसे-जैसे समय बीतता गया अन्य लोगों के दिल से वह पीड़ा भी धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। जिनके घर जल गये थे अब वे ही अकेले भोगने के लिये रह गये थे।
गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को चैकें वितरित की गयी। चैक भुनाने हेतु बैंक जाना पड़ा। कुछ दलाल उसमें शामिल हो गये। तीस प्रतिशत का सुविधा शुल्क उन्हें चढ़ाना जरुरी हो गया। अधिकांश गाँव वालों ने यह शुल्क देकर रुपये प्राप्त कर लिये थे। ढिल्लन ने भी शुल्क देने की हामी भर ली थी। बैंक का समय समाप्त हो रहा था। इसलिये उसे कल आने को कहा गया था।
सुहना ने ढिल्लन से पूछा कि कितने रुपये मिले। ढिल्लन ने बताया कि दस हजार रुपये का चैक मिला है। तीन हजार बैंक वाले माँग रहे थे।
चैक मुझे दे, कल मैं जाऊँगा बैंक। सुहना ने चैक ले लिया। सुहना और उसकी पत्नी ब्लाक पहुँचे। बैंक खुल गया था। कर्मचारी अपने कार्य में लग गये थे कुछ अपने केबिन को खोलते जा रहे थे।
सुहना ने चैक बैंक मैनेजर के सामने रख दिया। मैनेजर ने बगल में बैठे हुये दलाल की तरफ इशारा किया। दलाल उठा और सुहना को एकांत में ले गया। दलाल ने बात स्पष्ट कर दी थी।
सुहना मैनेजर के पास आया और धीरे से बोला- ‘साहब, पहले वाले मैनेजर ने तो कभी पैसे नहीं माँगे। आप ये पैसे क्यों ले रहे हैं।?’
‘मदन ने नहीं बताया।’ मैनेजर ने दलाल की तरफ इशारा किया।
बताया है, लेकिन मुझे रुपये पूरे चाहिये।’ सुहना ठोस इरादे में बोला।
‘ले लो न, कौन रोक रहा है तुम्हें?’ मैनेजर ने तल्ख स्वर में कहा।
सुहना ने चैक मैनेजर के सामने रख दिया।
मैनेजर ने चैक फैंक दिया।
सुहना ने चैक उठा लिया और विनम्र स्वर में बोला- ‘साब हमारी स्थिति पर ध्यान दीजियें हमारे पास कुछ नहीं बचा। लोग आपको दुआएं देगें ।
‘दुआओं से पेट नहीं भरता है।’ मैनेजर व्यंग्य से मुस्कराया।
सुहना को ताव आ गया और बोला- ‘‘पूरे पैसे ले ले, मैने तुझे पूरे पैसे दिये, इतनें में तेरे जवान बेटे की त्रयोदशी हो जायेगी।’’
स्थिति को भाँपकर गोरीबाई आगे आ गयी और सुहना का हाथ पकड़ते हुये बोली- ‘‘ऐसी बातें शोभा नहीं देती हैं, ईश्वर से डरो, वह सब देखता है।’
‘वह कुछ नहीं देखता है। अगर देखता होता तो इसकी करतूतों को क्यों नहीं देखता है?’ सुहना उबल रहा था- ‘‘यह खुले आम रिश्वत लेता है, ईश्वर इसका कुछ नहीं बिगाड़ेगा। रिश्वत के पैसे से यह और अधिक फूलेगा-फलेगा। आग हमारे घरों में लगती है, अपना घर यह भर लेता है। हराम का पैसा खा-खाकर कैसा मोटा हो रहा है।’
मैनेजर अपनी बेइज्जती से तिलमिला उठा। उसने पुलिस बुलाने की धमकी दे डाली फिर भी उसके हाथ काँप रहे थे। धमकी का सुहना पर कोई असर नहीं हुआ। चैक के टुकड़े करके मैनेजर के मुख पर दे मारे और बैंक से बाहर निकल आया।
बैंक में सन्नाटा छा गया, जैसे सभी को साँप सूँघ गया हो।

Sunday, August 16, 2009

बब्बा बोट हमईं खें दइयो

बब्बा बोट हमईं खें दइयो


बोट मांगती लुगाइयन कौ झुण्ड आँगू बढो जा रओ तो। दोऊ हाँत जोरें, ओठन पै मुस्कान, आधे मूंड़ पै घूँघट धरें चली जा रई तीं। रानी, मनकुरिया और पुष्पा झुंड के आँगू-आँगू हाँत में परचा लये सबखे बाँट रई ती। वे सबसे कहत ती-'बोट दइयो भइया ....... बोट दइयो मइया। दिन भर गलिन-गलिन घूमे सें थक सी गई ती वे फिरऊ उनके हौसला बुलन्द हते। आँगू वाली मोड़ पै उन्हें एक बूढौ मिला। ओखे मूं पै तेज चमक रओ तो...... माथे पै पीरे चन्दन कौ तिलक और कंधा तक बार झूलत ते। मूँड़ और दाढ़ी के सबरे बार भूरे हते। ओखी कखरी में एक किताब दबी ती। गरे में रुद्राक्ष की माला और कमर में पीरौ उन्हा पहरें तो। बिना गुद्दी वाले डुकरा खें दिखखे पहलूँ तो वे चांकी फिर ऊ झुंण्ड उनके नीगर पहुँच गओ। रानी ने बूढ़े खें परचा दओ और हाँत जोर खे मुस्क्या खे बोलीं -'बब्बा बोट हमई खें दइयो....... ई बेर चुनाव मैं लड़ रई हौं। दिखौ बब्बा यौ निशान न भूल जइयो।'' रानी ने अपने निशान पै उगरिया धरी -'यौ निशान तुरतई समझ तरें आ जात ..... तुम तौ येई वाले खाना पै मुहर ठोंक दइयो-भलू बब्बा..... बस येई बेर जिता देव।' रानी बब्बा खे समझाउत भई बोली -'बब्बा हमाये विरोधियन के चक्कर में न परियो वे हमाये हराबें के लानै एकड़ी चोटी कौ जोर लगायं फिरत।' रानी की बातन से बूढ़े की आँखी सिकुर गई। ऊनै अपने दिमाग पै जोर डारो....... तनक देर में ऊखें सब कछू समझ में आ गओ। ऊ बोलो -'तुम ओई हौ न? गली झारत वाली दलुद्दर उठाउत वाली रानी और या...... या मनकुरिया घर-घर चकिया चलाउवत वाली।' बूढ़ौ ताज्जुब से बोलो -'तुम्हाये मूं इत्ते काये खुले हैं..... तुम परदा करबो भूल गईं का ? तुम चाहत का हौ ?' बूढे़ ने एकई साँस में मनचाही बातें पूछ डारी।
- 'बब्बा हम बोट माँग रई है...... तुम हमाई कुर्सी पै बोट दइयो......कुर्सी न भूल जइयो।'
- ' तुम चुनाव लड़ रई ...... कुर्सी पै बैठहौ..... नीच होखें राज करिहौ...... कायदे कानून तौ नई भूल गईं ?' बुड्ढा सकते में आ गओ- 'मो जुबराज कहाँ है?'
- 'कौन जुबराज?' लुगाईं सकपकानी।
- ' मो जेठौ लरका! ओई तो नियम कानून बनाउत तो ........ ओखे बनाये नियमन खें सब कोऊ मानत तो। तुम नई मानत का? कहाँ गओ ऊ ?'
लुगाईयन खे बुड्ढा की कछू-कछू बातें समझ में आई। रानी हँसी - 'अच्छा ऊ ! बब्बा ऊ तौ हमई औरन की पार्टी में आ गओ।'
रानी की बात सुनखें बूढौ सनक गओ। ऊखौ दिमाग घूमन लगो। कखरी में दबी किताब जमीन पै गिर गई। तेज हवा में किताब के पन्ना फरफरा उठे। एक-एक पन्ना हवा में उलटत चलो गओ। आखिरी कौ पन्ना झटका सं बन्द हो गओ। ऊ पन्ना में मोटे और बड़े-बड़े अक्षरन में लिखो तो 'मनुस्मृति'।
बब्बा आँगू बढ़ गओ। ऊनै वा किताब नई उठाई। स्यात अब ऊनै ऊ किताब की जरूरत नई समझी।