Sunday, August 16, 2009

बब्बा बोट हमईं खें दइयो

बब्बा बोट हमईं खें दइयो


बोट मांगती लुगाइयन कौ झुण्ड आँगू बढो जा रओ तो। दोऊ हाँत जोरें, ओठन पै मुस्कान, आधे मूंड़ पै घूँघट धरें चली जा रई तीं। रानी, मनकुरिया और पुष्पा झुंड के आँगू-आँगू हाँत में परचा लये सबखे बाँट रई ती। वे सबसे कहत ती-'बोट दइयो भइया ....... बोट दइयो मइया। दिन भर गलिन-गलिन घूमे सें थक सी गई ती वे फिरऊ उनके हौसला बुलन्द हते। आँगू वाली मोड़ पै उन्हें एक बूढौ मिला। ओखे मूं पै तेज चमक रओ तो...... माथे पै पीरे चन्दन कौ तिलक और कंधा तक बार झूलत ते। मूँड़ और दाढ़ी के सबरे बार भूरे हते। ओखी कखरी में एक किताब दबी ती। गरे में रुद्राक्ष की माला और कमर में पीरौ उन्हा पहरें तो। बिना गुद्दी वाले डुकरा खें दिखखे पहलूँ तो वे चांकी फिर ऊ झुंण्ड उनके नीगर पहुँच गओ। रानी ने बूढ़े खें परचा दओ और हाँत जोर खे मुस्क्या खे बोलीं -'बब्बा बोट हमई खें दइयो....... ई बेर चुनाव मैं लड़ रई हौं। दिखौ बब्बा यौ निशान न भूल जइयो।'' रानी ने अपने निशान पै उगरिया धरी -'यौ निशान तुरतई समझ तरें आ जात ..... तुम तौ येई वाले खाना पै मुहर ठोंक दइयो-भलू बब्बा..... बस येई बेर जिता देव।' रानी बब्बा खे समझाउत भई बोली -'बब्बा हमाये विरोधियन के चक्कर में न परियो वे हमाये हराबें के लानै एकड़ी चोटी कौ जोर लगायं फिरत।' रानी की बातन से बूढ़े की आँखी सिकुर गई। ऊनै अपने दिमाग पै जोर डारो....... तनक देर में ऊखें सब कछू समझ में आ गओ। ऊ बोलो -'तुम ओई हौ न? गली झारत वाली दलुद्दर उठाउत वाली रानी और या...... या मनकुरिया घर-घर चकिया चलाउवत वाली।' बूढ़ौ ताज्जुब से बोलो -'तुम्हाये मूं इत्ते काये खुले हैं..... तुम परदा करबो भूल गईं का ? तुम चाहत का हौ ?' बूढे़ ने एकई साँस में मनचाही बातें पूछ डारी।
- 'बब्बा हम बोट माँग रई है...... तुम हमाई कुर्सी पै बोट दइयो......कुर्सी न भूल जइयो।'
- ' तुम चुनाव लड़ रई ...... कुर्सी पै बैठहौ..... नीच होखें राज करिहौ...... कायदे कानून तौ नई भूल गईं ?' बुड्ढा सकते में आ गओ- 'मो जुबराज कहाँ है?'
- 'कौन जुबराज?' लुगाईं सकपकानी।
- ' मो जेठौ लरका! ओई तो नियम कानून बनाउत तो ........ ओखे बनाये नियमन खें सब कोऊ मानत तो। तुम नई मानत का? कहाँ गओ ऊ ?'
लुगाईयन खे बुड्ढा की कछू-कछू बातें समझ में आई। रानी हँसी - 'अच्छा ऊ ! बब्बा ऊ तौ हमई औरन की पार्टी में आ गओ।'
रानी की बात सुनखें बूढौ सनक गओ। ऊखौ दिमाग घूमन लगो। कखरी में दबी किताब जमीन पै गिर गई। तेज हवा में किताब के पन्ना फरफरा उठे। एक-एक पन्ना हवा में उलटत चलो गओ। आखिरी कौ पन्ना झटका सं बन्द हो गओ। ऊ पन्ना में मोटे और बड़े-बड़े अक्षरन में लिखो तो 'मनुस्मृति'।
बब्बा आँगू बढ़ गओ। ऊनै वा किताब नई उठाई। स्यात अब ऊनै ऊ किताब की जरूरत नई समझी।

9 comments:

  1. आप में प्रतिभा है। आशा है हिन्दी ब्लॉग को समृद्ध करेंगे। चलताऊ के बजाय कथा में नए और ताजे प्रतीकों का प्रयोग किया करें।

    शुभकामनाएँ।

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  2. आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में हार्दिक स्वागत है. आपके नियमित लेखन के लिए अनेक शुभकामनाऐं.

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  3. Aapka swagat hai... isi tarah likhte rahiye...

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  4. स्वागत है आपका. आप लाल भी है और पाल भी. सशक्त लेखन जारी रखे.

    -सुलभ ( यादों का इंद्रजाल )

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  5. चिट्ठाजगत में आपका स्वागत हें
    आप हिन्दी में लिखते हें अच्छा हें
    जीतने ज़्यादा लोग हिन्दी में लिखेंगे
    हिन्दी का उतना ही विकास होगा
    शुभकामनाएँ

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  6. भाषा बहुत प्यारी सी लिखी है आपने ,थोड़े सुधार के साथ अगली लघुकथा लिखें ,हम इंतज़ार कर रहे हैं.

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